गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

चित्तौड़गढ़ :जिसकी दीवारों में कभी गूँजे थे मीरा के भजन और राणा कुंभ के जयघोष !

उदयपुर से दूसरे दिन हम जब चित्तौड़ की ओर निकले तो सुबह खुशनुमा थी। आकाश में हल्के हल्ले बादल जरूर थे पर बारिश नहीं हो रही थी। राष्ट्रीय राजमार्ग 76 के शानदार रास्ते पर चित्तौड़गढ़ की करीब 115 किमी की दूरी डेढ़ घंटे में कैसे कट गई पता ही नहीं चला।

 करीब डेढ़ दो सौ मीटर ऊँची पहाड़ी पर बने इस तीन मील लंबे और पाँच सौ फीट ऊँचे किले पर जब हम चढ़ रहे थे तो दिन के बारह बज चुके थे। किले तक पहुँचने के लिए इसके सात गेटों (पदन ,भैरों, हनुमान, गणेश, जोदला लक्ष्मण और राम) को पार करना पड़ता है। गेटों की नुकीली मेहराबें ऐसी कि ना हाथी को आसानी से घुसने दें और ना ही तोप के गोलों को ही अंदर जाने दें।


चित्तौड़गढ़ अपने क्षेत्रफल के हिसाब से राजस्थान का ही नहीं बल्कि भारत का सबसे बड़ा किला है। इस किले का इतिहास भी बेहद पुराना है। सातवीं शताब्दी में इसका निर्माण हुआ। किसने करवाया इसमें सब एकमत नहीं है पर अधिकांश इतिहासकार मौर्य वंश के शासक चित्रांगदा मोरी को ये श्रेय देते हैं। संभवतः चित्तौड़ नाम मोरी के नाम से ही पड़ा। इतना जरूर है कि 734 ई में ये किला बप्पा रावल की मिल्कियत में आ गया। ये बप्पा रावल वही थे जिन्होंने मेवाड़ में सूर्यवंशी शिशोदिया राजाओं के शासन की नींव रखी थी। राणा उदयसिंह के उदयपुर को अपनी राजधानी बना लेने के पहले तक ये किला मेवाड़ की राजधानी बना रहा यानि ये किला आठ सौ से भी ज्यादा सालों तक मेवाड़ की राजधानी बना रहा । इतनी लंबी अवधि तक राजधानी के रूप में गुलज़ार रहे इस किले में कितनी कहानियाँ दफ़न होंगी ये तो इस किले के खंडहर ही बता सकते हैं। पर अफ़सोस खंडहर बोल नहीं सकते। पर इन खंडहरों की कहानी कहने वाले गाइड आपको टिकट घर के पास ही मिल जाएँगे।

पूरा किला दिखाने के सरकार द्वारा अनुमोदित पाँच सौ रुपये का रेट सुनकर हमने गाइड लेने का विचार त्याग ही दिया था कि हमें एक महिला गाइड मिली जो शायद डेढ़ सौ रुपये में ही हमें किला दिखाने को तैयार हो गई। दरअसल बिना गाइड के ऐसी ऐतिहासिक इमारतों को देखना और उनके महत्त्व को समझ पाना मुश्किल है। पर चित्तौड़गढ़ और कुंभलगढ़ में गाइड लेने की व्यवस्था बड़ी लचर है। गाइड के रूप में यहाँ आपको अधिकृत और अनाधिकृत दोनों तरह के लोग मिल जाएँगे और उनसे मोल भाव करने का काम भी आपका है। इससे उलट जोधपुर के मेहरानगढ़ और बीकानेर के जूनागढ़ किले में गाइड के लिए टिकट बक़ायदा सरकारी काउंटर से कटते हैं। टिकटघर के पार ही पूरे किले का एक नक़्शा बना है। किले के अंदर जाती रोड तेरह किमी की परिधि में फैली है और अधिकांश दर्शनीय स्थल इस सड़क के आस पास ही हैं।

हमारी गाइड मैडम सबसे पहले हमें ले गयी हमें मीराबाई के मंदिर में। मीरा के भजन और उनकी कहानियाँ तो मैं बचपन से सुना करता था पर जोधपुर की इस राजकुमारी का संबंध चित्तौड़गढ़ के किले से है इस तथ्य से मैं अनजान था। मीरा, राणा सांगा की पुत्रवधू थी और उनके पति राजकुमार भोजराज थे। मीरा चित्तौड़ के इस किले में पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में आई थीं। कृष्ण के प्रति अपने प्रेम और भक्ति की वज़ह से वो अपने रिश्तेदारों की प्रताड़ना की पात्र बनी। पर राजकुमार भोजराज ने कृष्ण से उनके आध्यात्मिक लगाव को समझा और चित्तौड़गढ़ के अंदर ही कृष्ण मंदिर की स्थापना कि जिसे आज मीरा मंदिर के नाम से जाना जाता है।

मंदिर के बाहर लगे साइनबोर्ड पर ये भी लिखा है कि इसी मंदिर में मीरा को रिश्तेदारों द्वारा भिजवाया विष अमृत हो गया था। मंदिर में कुछ वक़्त बिताने के बाद हम विजय स्तंभ के पास स्थित समदेश्वर महादेव के दर्शन के लिए पहुँचे।


मीरा मंदिर की तरह ये भी एक बेहद भव्य मंदिर है। मंदिर के अंदर भगवान शिव की त्रिमूर्ति है जिसका जीर्णोद्वार महाराणा मोकल ने चौदहवीं शताब्दी में करवाया था।


पर चित्तौड़गढ़ की पहचान यहाँ का विजय स्तंभ है जिसे राणा कुम्भ ने मालवा पर अपनी विजय की खुशी में बनवाया था। राणा मोकल के पुत्र राणा कुम्भ एक पराक्रमी शासक थे। वे 1433 ई में महाराणा बने और अगले पैंतीस सालों तक उन्होंने मेवाड़ पर शासन किया। अपने शासनकाल में उन्होंने गुजरात और मालवा के शासकों से युद्ध में कई बार लोहा लिया और विजयी हुए।

कुछ पर्यटक 37 मीटर ऊँचे  इस स्तंभ के अंदर जाते दिखे। गाइड ने कहा अंदर कुछ है नहीं फिर भी इच्छा है तो चले जाओ। हमें भी लगा कि शायद ऊपर से किले का अच्छा दृश्य दिखाई दे। जैसे ही हमारा समूह स्तंभ के अंदर घुसा एक संकरी सीढ़ी ऊपर जाती दिखाई दी। बहुत कुछ वैसी जैसी चार मीनार पर चढ़ने पर मिलती है। इतने अच्छे शिल्पकारों और कारीगरों के रहते उस वक़्त इतनी संकरी सीढियाँ क्यूँ बनाई जाती थी ये एक शोध का विषय हो सकता है। बहरहाल सीढ़ियों में झुकते झुकाते जब पहले तल्ले तक पहुँचे तो कबूतरों द्वारा छोड़े अवशेषों की मस्त बयार ने और ऊपर चढ़ने का मूड आधा कर दिया। दूसरे तल्ले पर जब ऊपर से हाँफता हुआ निराश परिवार नीचे ये कहते उतरा कि ऊपर जाना बेकार है तो हम भी उसके साथ नीचे को उतर लिए।

मीरा मंदिर के पास ही राणा कुंभ का विशाल महल था जो अब काफी हद तक क्षत विक्षत हो चुका है। कहते हैं इस महल के एक तहखाने में रानी पद्मिनी ने ज़ौहर किया था।



दरअसल चित्तौड़गढ़ का इतिहास अगर अद्भुत पराक्रम का इतिहास है तो आक्रमणकारियों की बर्बर हिंसा का भी ये किला गवाह रहा है। राजपूती आन बान के प्रतीक माने जाने वाले इस किले में कई बार ज़ौहर के रूप में दिल दहलाने वाला सामूहिक आत्मदाह हुआ। रानी पद्मनी, रानी कर्णावती, पन्ना धाय, गोरा, बादल, जयमल, पट्टा जैसी ऐतिहासिक विभूतियों से जुड़ी कितने ही त्याग और वीरता की कहानियाँ की किले की ढहती दीवारें साक्षी रही हैं। ऐसी ही कुछ गाथाओं से रूबरू होंगे इस श्रृंखला की अगली पोस्ट में। साथ ही आपको दिखाएँगे कि किस तरह रानी पद्मिनी की झलक पाई थी अहमदशाह अब्दाली ने इस किले में ....

इस श्रृंखला में अब तक

8 टिप्‍पणियां:

  1. सीढियाँ और गलियारे सुरक्षा की दृष्टि से बनाए जाते थे। कई किलों के गलियारे तो इतने सकरे हैं कि एक ही आदमी गुजर पाता है। आमने सामने होने पर बगल से नहीं निकल सकते और उपर दुछ्त्ती में सैनिक बैठते थे जो हमलावर की गर्दन एक ही वार में उड़ा सकें।

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  2. ललित जी किलों के अंदर के महलों में तो सुरक्षा वाली बात समझ आती है पर इस तरह के स्तंभों का निर्माण अमूमन खास खुशी के मौकों पर ही किया जाता रहा। यही विचार मन में आ रहा है कि महाराणाओं के लिए खुद ऐसे स्तंभों से जनता को संबोधित करना कितना कष्टप्रद हुआ करता होगा ?

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  3. मनीषजी बहुत खूब. पिछले बार जब हम चित्तोड़ गए थे तो फोटोग्राफी ठीक से नहीं हो पाई. अपने वो क़सर पूरी कर दी. थैंक्स.

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  4. Manish ji, Chittor is my hometown.... aapki is post ke liye shukriya.......bahut din se Vijyastamabh par nahi chade.......abhi k halat aap se jaan kar dukh huya.....bachpan kai bar upar gayee aur bahut der tak nazare dekha karte the.......

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  5. मीरा मन्दिर तीर्थ के दर्शन कराने का आभार!

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